‘‘पितृपक्ष’’ प्रवीण कुमार पाठक की कविता

मोक्ष एवं ज्ञान की नगरी गयाजी धाम में हो रहे पितृपक्ष मेले में सहयोग कर रहे लोगों एवं तीर्थयात्रियों को समर्पित।
(लेखक गयाजी धाम के बुधगेरे निवासी हैं।)
पितृपक्ष का मेला आया,
पंडा-पंडित खुब कमाया।
दुकानदार भी बन गये सारे,
रोजगारी भी सब खुब बनाया।
शहर तो सजकर दुल्हन बन गई,
देख मेरा मन खुब हर्षाया।
देखा झाड़ू देने वाले ने,
एक बरस का कूड़ा आज उठाया।
विजली, पानी, सफाई सभी कुछ,
पन्द्रह दिन तक खुब नजर आया।
पन्द्रह दिन के बाद अंधेरा ही केवल,
गंदगी और बिन पानी का नल पाया।
जगह-जगह पर गाड़ी कूड़ा फेक रहा,
और मिस्त्री गली-गली फेरा खुब लगाया।
पन्द्रह दिन के बाद सभी का कहना है कि,
यात्रियों ने गंदगी से गली-गली गमकाया।
किसी यात्री का कहना है कि,
एक आदमी ने मुझे लंगाझारी तक करवाया।
भाड़ा अब क्या भीख मांग कर लाऊँ,
गलत किया जो विष्णु दर्शन को आया।
एक चाय वाले ने पन्द्रह दिन कमाकर,
अपनी बीबी, बच्चों का कपड़ा लाया।
कुछ पैसा जमा भी कर दिया,
और कुछ दुकान में भी लगाया।
फल्गुतट पर फूल बेचकर,
बच्चे भी बीस, पच्चीस, पच्चास कमाया।
यात्री भी सब पिंडदान कर,
फल्गु गंगा में खुब नहाया।
बरसात का मेढ़क जैसा पंडित,
आश्विन में हर तरफ नजर आया।
पन्द्रह दिन यात्रियों ने पंडित को,
खुब पुरी, जलेबी और लड्डू खिलाया।
पंडित जी भी खुब खुुश होकर,
उसको फल्गु, अक्षयवट और प्रेतशिला घुमाया।
आचार्य दक्षिणा के बदले धोती, साड़ी मंगवाकर,
अपने पैरों पर रखवाया।
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